बेटा नरेंद्र,
आज तुम एक सूबे के मुख्यमंत्री हो. अपनी हठधर्मिता से एक पार्टी के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार भी बन गए हो. तुम हेलीकॉप्टर में धूमते हो, ब्रांडेड कपड़े पहनते हो, काले चश्मे लगाते हो, अंग्रेज़ी में हाथ आजमा लेते हो, चप्पलों तक पर धूल का एक कण नहीं बैठने देते,बाल कभी बिखरते नहीं, थ्री-डी और मल्टीमीडिया में, वेब की दुनिया में छाए हुए हो. यह बात और है कि अपने अतीत के उन वर्षों को,जिसमें तुमने अपने पिता के साथ चाय की दुकान पर काम किया, का ज़िक्र करते तुम नहीं थकते. तुम्हारा बचपन भी अब तुम्हारे प्रचार का एक माध्यम बन गया है. ख़ैर, राजनीति और महात्वाकांक्षाएं कइयों को निष्ठुर बनाती आई है. तुम तो सदा से इन कइयों के भी आगे खड़े रहे हो. इसलिए सुनकर दुख होता है पर अस्वाभाविक नहीं लगता.
दिल्ली में जब तुम्हारी पहली रैली का संबोधन सुना तो अफ़सोस हुआ. तुम अपने भाषण को कसावटवाला और बंधा हुआ रख पाने में असमर्थ हो. बिखरा और कच्चा लगा संबोधन. हालांकि तुमको यह बात न तो मैं समझा सकती हूं और न ही तुम्हारी पार्टी का कोई और क्योंकि निंदा के लिए तुम्हारे कानों में कोई कोना नहीं है. निंदा से तुम भड़कते हो और यह असहिष्णुता मुझे तुम्हारे लिए घातक लगती है, डर लगता है तुम्हारी इस प्रवृत्ति से. निजी जीवन से राजनीतिक जीवन तक तुम धैर्यवान नहीं हो. यह अच्छी बात नहीं है. अच्छा संकेत नहीं है. मां हूं इसलिए चिंता होती है वरना तुम्हारी पार्टी में ऐसी चिंता करने वाला कोई नहीं है. सब चाहते हैं कि तुम्हारे अवगुण अपने चरम पर रहें और तुम्हारा पतन हो. मैं ऐसा नहीं चाहती लेकिन तुम तक मेरी आवाज़ नहीं पहुंचेगी.
मैं तुम्हारी मां हूं. किसी राजधराने से नहीं हूं. किसी जागीरदार की बेटी नहीं. किसी धनपशु की भगिनी नहीं. एक निम्नवर्गीय परिवार की बेटी. एक गांव से निकली. तुम्हारे पिता से विवाह हुआ और हम रोज़ की मेहनत पर अपना जीवन जी रहे थे. सही अर्थों में कहूं तो मैं एक देहाती महिला हूं. किसी कॉन्वेंट या इंटरनेशनल स्कूल का मुंह तक नहीं देखा. न तुम्हें भेज पाई. इसका अफ़सोस रहा पर अपनी ज़मीनी सच्चाई से वाकिफ़ थे हम. मेहनत कर रहे थे और तुम लोगों को पाल रहे थे. तब युवावस्था में तुम अपने निर्णयों से प्रेरित होकर आगे बढ़ गए. हम पीछे रह गए. पर इतने नहीं पिछड़े कि कोख को लजा देने वाला शब्द बन जाए देहाती होना. देहात में तो भारत बसता है. देहात हमारी पहचान है. अन्न, जल, संस्कृति सब देहात से ही शहर तक आया. जो शहर में बना, वो बाज़ार का था. जो देहात में बना वो ज़मीनी था, असली था. जैसे घड़ा. शहर में यह फ़ैशन है, गांव में ज़रूरत है. देहाती होना अपनी मिट्टी से जुड़े होना है. देहाती होना बाज़ार के नंगे और खोखले स्वांग से कुछ हद तक बचे रहना है. देहाती होना पर्यावरण के लिए भी अच्छा है, पारिस्थितिकी के लिए भी. देहाती होना शहरी होने या जाहिल होने से हमेशा बेहतर है. देहाती औरत, इसीलिए, कोई गाली नहीं है. अगर नवाज़ शरीफ़ ने मनमोहन सिंह को ऐसा कुछ कहा भी है तो यह गाली देहाती औरत के लिए है, तुम्हारे लिए, तुम्हारे कुंठित मन के संकीर्ण राष्ट्रवाद के लिए और मनमोहन सिंह के लिए नहीं. नवाज़ ने मनमोहन सिंह को देहाती औरत कहकर देहाती औरत का अपमान किया है और उसी उपमा का परिहास और उसे गाली बताकर तुमने एक देहाती मां की कोख का अपनाम किया है, उसे गाली दी है. यह कैसा बोध है जो देहाती औरत जैसी उपमा को गाली समझकर उसे राष्ट्र की पहचान और अपमान के रूप में परिभाषित करता है और फिर उसपर पुरुषवादी दंभ का लंगोट पहनकर अपनी जांघें ठोकता हुआ चुनौतियों की भाषा बोलने लगता है.
लेकिन भला तुमको यह बात कैसे समझ आ सकती है. मनमोहन सिंह ने 1991 से पहले भी और उसके बाद से अबतक जो किया है, उससे देहाती और देहाती के लिए संकट गहराए हैं. उनके अस्तित्व को कभी आर्थिक नीतियों से, कभी संसाधनों को हड़पने की चालों से और कभी विश्वबैंक की दलाली करते हुए नीलाम किया जाता रहा. तुम्हारा रास्ता भी इससे अलग कहां है. तुमने अपने राज्य में किसानों, मजदूरों, ग्रामीणों को जो दर्द दिए हैं, उनको देखने के बाद लगता नहीं कि इस देश के देहात और मिट्टी के प्रति तुम्हारे अंदर कुछ प्रेम है.
ख़ैर, तुम प्रेम कर भी कैसे सकते हो. जिसके सत्तासीन रहते कोखों को चीरकर बच्चे मारे गए. जिसके राजधर्म में महिलाओं के गर्भ में हथियार डाले गए. नवजातों को नोंचकर बाहर फेंका गया, उस राजा या शासक के लिए प्रेम सत्ता से है, शक्ति से है, आत्ममोह से है, स्व-अस्तित्व से है. बाकी किसी से नहीं. मुझे अफ़सोस है कि तुम कुछ भी कर सकते हो, कुछ भी बन सकते हो, लेकिन प्रेम नहीं कर सकते. और जो प्रेम नहीं कर सकते, वे केवल नफ़रत कर सकते हैं. हिंसा कर सकते हैं. हत्या कर सकते हैं.
देहाती को गाली समझना एक देश की हत्या है, मां की हत्या है. बौद्धिक चेतना की हत्या है.
देहाती महिला को गाली समझना, अपमान समझना अपनी मां की हत्या है. उस कोख को लजाना है जो देहाती है, इस देश की मिट्टी है, तुम्हारी मां है.
काश तुम देहाती औरत के अस्तित्व का अंश भर भी होते, उसे कहीं तो अपने अंदर स्वीकार या आंगीकार कर पाते. तुम क्या, मनमोहन भी. तो शायद देश की स्थिति इतनी बुरी नहीं होती.
तुम्हारी (खेद है),
देहाती मां