‘अन्ना’ से ‘आम’ हुई, डारलिंग तेरे लिए…

मैं टोपी हूं. शिरोधार्य. यही तो कहा गया था मुझे आकार देते हुए. बाद में मैंने पाया कि मैं दरअसल पुरुषों का गंजापन छिपाने का एक तरीका हूं. आमतौर पर जिनके सिर पर मुझे जमा हुआ दिखाया जाता है, अंदर से उनसे सिर नंगे हैं. कुछ बिना बाल के और कुछ बालों सहित नंगे. मेरा काम है इस खोखलेपन को ढके रखना. वैसे, आज में अपनी जिस जात की व्यथा आपको सुना रही हूं, उसका नाम नोट पर छपने वाले गांधी से जुड़ा है. मैं गांधी टोपी हूं.

 

हालांकि मेरी एक बहन भी है. उसका रंग काला है. काला होने से कोई आपत्ति तो नहीं है. काला रंग बुरी चीज़ नहीं है. काले का भी उतना महत्व है जिसका की सफेद का. पर इस काले रंग को कुछ ग़लत नीयत के लोगों ने हथिया लिया है और काले को बुरे का प्रतिमान बना दिया है. 1925 में मोहते का बाड़ा में एक डॉक्टर ने पांच बच्चों की मदद से सफाई का एक काम शुरू किया था. इसी सफाई अभियान को एक संगठन का नाम दे दिया गया. दायरा राष्ट्रीय स्तर पर फैला इसलिए नाम दिया गया- राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ. बाद में मैं इस संगठन की पोशाक हो गई. काली टोपी सिर पर लगाकर सफाई का अभियान चलता रहा और चल रहा है. हाँ, ये किसी बाड़े की सफाई से हटकर संवाद, बहस और मानवीय मूल्यों की सफाई का काम बन चुका है. यह सफाई का निहायत ही तालेबानी तरीका है. इस कट्टरपंथी सफाई से सिर्फ विध्वंस हासिल होता है, सुंदरता नहीं. आपको याद दिया दूं कि इस सफाई के चलते जब मैं वैष्णव जन गा रही थी, मेरी बहन ने मेरे सीने में गोलियां उतार दी थीं.

 

वैसे, जिस गांधी से मेरा नाम जोड़ा जाता है, उनकी शायद ही कोई तस्वीर सार्वजनिक तौर पर देखने को मिले, जिसमें मैं उनके सिर पर दिखाई दूं. हाँ, नेहरू कभी कभी ही मेरे बिना दिखाई दिए. जनमानस के मन में जो पहली छवि नेहरू की आती है, वो गांधी टोपी वाली ही होती है. यहाँ से एक परिवार में मेरे टोपी ट्रांसफ़र का एक सिलसिला चल निकला जो आज भी बदस्तूर जारी है.

 

पर टोपी किसी एक की नहीं होती. लोकतंत्र ने उसे वैशाली की नगरवधु बना दिया. मुझे इज़्ज़त तो नहीं मिली पर ये ज़रूर हुआ कि इज़्ज़त के खेल में पांचाली की तरह खड़ी कर दी गई. कोई हमें उतार फेंकता, किसी ने अपने खून के साथ मुझसे पोछे, किसी ने सिर और मेरे बीच पैसे छिपाए. किसी ने मुझे वक़्त वक़्त पर उछाला, मुझे गिरवी रखा गया, नीलाम किया गया. समझौतों पर आधारित एक विचारधारा ने मुझे लाल रंग में रंग दिया और साइकिल पर सवार होकर वो अबतक मेरा और लाल रंग का मज़ाक बना रहे हैं. एक राज्य में तो मैं पोशाक में शुमार हूं. आत्महत्या करते किसान से लेकर लाल बागचा राजा वाले गणपति के सिर तक और राज ठाकरे, गवली से लेकर डिब्बावालों तक मैं नज़र आ जाती हूं.

 

मुझे अक्सर अपने और टाई के अस्तित्व पर ही हंसी आती है क्योंकि हम दोनों का ही अस्तित्व किसी बहुत बड़ी ज़रूरत की चीज़ तो है नहीं. पहनो, न पहनो… कोई फ़र्क नहीं पड़ता. पर लोगों को पिछले कुछ समय में नीतियों, चोरियों और भ्रष्टाचार से जो फ़र्क पड़ा है, उसके खिलाफ़ लड़ाइयों के एक मध्यमवर्गीय, भ्रमित और भ्रामक आंदोलन को पता नहीं कैसे मैं रास आ गई.

 

इसबार मैं आई नहीं, लाई गई. एक तय रणनीति के तहत एक गांव के हेडमास्टर (जो फ़ौज में ड्राइवर था और अब एक गांव को भी फौज की गाड़ी की तरह ही चलाता है) को कुछ लोग दिल्ली ले आए. ये वे लोग हैं जिनके सिर पर 2011 से पहले मैं कभी नहीं देखी गई थी लेकिन कुशल मीडिया और जन-प्रबंधन के बलबूते इस देश के सबसे बिकाऊ प्रतीक की पहचान कर ली गई और ऐसे एक सिर को, जो मुझे धारण करता है, मंच पर लाकर बैठा दिया गया. फिर क्या था. हर तरफ मेरा जलवा. मैं ही मैं. बिना किसी भेदभाव के हर सिर पर मैं. मीडिया में अपनी मौजूदगी और असर से हम दोनों दंग थे- मैं भी और मुझे पहनने वाला सिर भी.

 

धीरे-धीरे मुझे एहसास हुआ कि अब मैं गांवभर की भौजाई बना दी गई हूं. क्या चोर, क्या भ्रष्ट, क्या भगवा वाले, क्या चाटूकार, क्या दलाल, क्या लुटेरे… सब के सब मुझे पहनकर सड़कों पर. चारों ओर कैमरे और मेरा नाम इन तमाम के साथ जोड़कर दिखाया जाता रहा. इसके बाद तो आंदोलन टोपियों का धंधा बन गया. काली टोपी वाले तालेबानी बड़े पैमाने पर मुझ जैसी लाखों सफेद टोपियां सिलवा रहे थे. मैदानों, मोर्चों पर पहुंचा रहे थे. नारे लगाए जा रहे थे- मैं भी अन्ना, तू भी अन्ना, अब तो सारा देश है अन्ना. इस नारे के प्रायोजकों को ध्यान आया कि टोपी तो ससुरी गूंगी होती है इसलिए छापेखानों में मुझे ट्रकों में लादकर रवाना कर दिया गया. मेरी देह पर मेरा नाम छापने के लिए. मुझे बताया गया कि मैं अन्ना हूं.

 

मैंने सोचा कि चलो यही सही, गांधी से अन्ना हो गई. अब कोई मुझे कपूर कहे या खन्ना, गांधी कहे या अन्ना, इससे क्या फ़र्क पड़ता है. मसला तो नीयत का है. वो साफ नहीं थी. मैं भी साफ न रही. जंतर मंतर के कूड़ेदानों से लेकर पिचकी-कुचली पानी की बोतलों के नीचे, यहाँ-वहाँ मैं रगड़ी-रौंदी जा रही थी. ये धंधा कई एपिसोड्स में चलता रहा. पहले लोकपाल, फिर सपूर्ण क्रांति और फिर राजनीति… ऐसे कई किस्म के खयाल मेरे जेहन में आते रहे. हर बार मुझे ज़बरदस्ती यह भी भरोसा दिलाया जाता रहा कि यह खयाल हिंदोस्तान को दुरुस्त करने के लिहाज से सबसे ज़्यादा बेहतर, परिपक्व और टिकाऊ है पर हर बार खयालों में बदलाव वैसे ही आते रहे जैसे किसी भी सामान्य दिन में मथुरा के बांके बिहारी मंदिर में कन्हैया के कपड़े और श्रृंगार बार-बार बदले जाते हैं. या धर्मनिरपेक्ष होकर समझाऊं तो जैसे शिवराज पाटिल प्रतिदिन कपड़े बदलते थे.

 

ख़ैर, इस दौरान गांव के हेडमास्टर को एक मुग़ालता यह हो गया कि वो और मैं चमककर पूरे मीडिया पर छा गए हैं. ‘अब तो सारा देश है अन्ना’ किसी बम की तरह फूटा था और उसका अनुनाद था कि कम होने का नाम ही नहीं ले रहा था. हेडमास्टर दरअसल यह भूल गया कि उसे और मुझे लाया गया था, हम आए नहीं थे. पर हेडमास्टर को यकीन था कि ताना-बाना तो मेरे इर्द-गिर्द है. बनना और बिगड़ना मेरी मौजूदगी पर तय होगा. इस तरह की सोच के साथ हेडमास्टर मुझे लेकर आंदोलन से अलग हो गया. मगर यह क्या, मेरी तो क्लोनिंग हो चुकी थी. एक नहीं, दो नहीं, सैकड़ों-हज़ारों.

 

आया मजा रे, जाओ हजारे- यही मतविभाजन दर्शा रहा था. छापेखाने फिर खुले. नारा बदल गया. मेरा नाम भी. अब मेरा नाम, ‘आम’ है.  अंगूरों की सेज पर लेटे मध्यमवर्ग का यह आंदोलन अभी तक आम लोगों के मुद्दों को दस्तक नहीं दे पा रहा है. पता नहीं, मेरे भाग्य में कबतक अंगूर के बाग वालों के सिर पर चढ़ा ‘आम’ बनना लिखा है और पता नहीं मुझे इनसे कब मुक्ति मिलेगी. ख़ुदा ख़ैर करे.

From a slum based tabloid to BBC world service, over the last 12 years, Panini Anand has worked as a journalist for many media organizations. He has closely observed many mass movements and campaigns in last two decades including right to information, right to food, right to work etc. For a man who keeps a humble personality, Panini is an active theatre person who loves to write and sing as well.

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