By Binit Priyaranjan
न्याय
न्याय का क्या मज़हब है?
न्याय की क्या ज़ात है?
क्या सोचे कोई फिर देशभक्त,
जो ये भी सोचने की बात है?
क्या लाभ है न्यायालयों का
जब लिखित में हमे ये ज्ञात है,
के अफज़ल की फांसी का फंदा
आहत जनता के जज़्बात है?
कहाँ पाते हैं न्याय गरीब?
क्या न्याय भी अर्थवाद है?
के वे भी देखें जो कोई ले दिखाए,
वो जो उद्योगपतियों की बिसात है।
देशभक्त, न्याय की परिभाषा क्या है?
क्या इसकी पहचान है?
क्या नहीं इन्ही सवालों का जवाब,
आज़ाद भारत का संविधान है?
क्या न्यायोचित है न्याय का चीर-हरण
यूँ टीवी पर, अख़बारों में?
मानो न्याय बंट रहा हो,
बंद कमरों में, पत्रकारों में!
अंतिम प्रश्न हे देशभक्त!
क्या न्याय सबका सिद्ध अधिकार है?
या सौभाग्य है उन चुनिंदों का,
जिनके संघ पहले ही परिवार है?
विनीता
बहुत शानदार समसामयिक अभिव्यक्ति
Prakash Bhardwaj
बेहतरीन बाबा बैद्यनाथ तूम्हे इसी तरह निर्भीक होकर लिखने की शक्ति दे और समाज को आइना दिखाते रहो।
धन्यबाद