किलेरिनेट

By Gulzar

 
वो दोनों बग़ल की बिल्डिंग में थे। फि़रोज़ सुबह सुबह अपनी किलेरिनेट (clarinet) लेकर, खिड़की के पास बैठ जाता, और मेरी बालकनी की तरफ़ मुंह कर के बजाने लगता—और ये मामूल हो गया था कि झड़प हो, और मैं अपना अख़बार, चाय लेकर अन्दर चला जाऊं…ना वो बाज़ आया, न मैं! मेरे लिये सुबह का अख़बार पढ़ने की सब से मौज़ूं जगह वही थी। उस की बालकनी, पीछे की तरफ़ थी! मगर उसे रोज़ वहीं बैठ कर किलेरिनेट बजानी थी। खिड़की पर—और वो भी थूथनी मेरी बालकनी की तरफ़ कर के।

“उधर जाके बजाओ नां, जहां बालकनी है तुम्हारी?”

“काये को!” वो अपने मख़सूस पारसी अन्दाज़ में जवाब देता।

“उधर धूप में बैठ के किलेरिनेट बजाता है कोई। सूसायीटी वाले पागल बोलेंगे अमारे को।”

“तो पागल तो हो तुम! किसी दिन ऊपर आके तुम्हारी किलेरिनेट तोड़ दूंगा मैं!”

“तुम आओ तो सही। अम तुम्हारी टांगें तोड़ दूंगा।”

जब तक उसकी बीवी आ जाती—नीरा!

वो खिड़की बंद करना चाहती तो वो उससे भी झगड़ा करता।

“रहने दो—उसको नहीं सुनना है, तो अन्दर जाके बैठे।”

वो अपनी म्युजि़कल नोट्स वाली काॅपी उठा कर सामने रख लेता। और फिर बजाने लगता। मैं फिर अपना अख़बार और चाय उठा कर अन्दर चला जाता। मेरी अगर बीवी होती तो उसके घर भेजता जा के उसकी बीवी को समझाये! अब नोकर क्या मुंह लगे उनके!

नीरा को दो एक बार मैं मिल चुका था। पाली मार्किट में, सब्ज़ी तर्कारी ख़रीदते हुये। मैंने उससे कहा भी।

“उसे कहो, किसी और वक़्त अपनी थूथनी बजाया करे। सुबह सवेरे वो काग़ज़ सामने रख के बैठ जाता है खिड़की पर। और कोई जगह नहीं है घर में? रीयाज़ करने के लिये?”

वो सिर्फ़ मुस्कुरा दी। मैं ख़ुद ही खिस्याना हो कर चुप हो गया।

एक और दिन खिड़की और बालकनी की झड़प हो गई। मैं कुछ परेशान था, इस लिये जल्दी चिड़ गया।

“क्या करेगा तुम?” वो बोला, “तुम आओ इधर…तुमको साला खिड़की से उठा कर बाहर फेंक देगा।” वो भी कुछ ज़्यादा तैश में आ गया…उस दिन नीरा ने आकर खिड़की बंद कर दी वरना मुमकिन था मैं चला ही जाता उसके घर।

ऐसे मौक़ों पर आदमी किसी के सामने शेख़ी बघार के, अपना ग़ुस्सा ठंडा कर लेता है। मुड़ा तो नोकर चाय रख रहा था। मैं बोल पड़ा।

“या तो किलेरिनेट छुड़ा दूंगा उसकी, नहीं तो फ्लैट छुड़ा दूंगा। और कहीं जा कर बजाये अपनी थूथनी। आज वो…वो…बीवी उसकी, खिड़की न बंद कर देती तो! शाम को मार्किट में मिली तो बताऊंगा उसे।”

“कौन साहब? वो बावाजी की बीवी की बात कर रहे हैं?”

“हां, वही! उसी की वजह से आज बच गया वो।”

“वो तो बहरी है साहब! सुन नहीं सकती।”

मैं कुछ देर रामू की तरफ़ देखता रहा।

“हां, साहब! बिल्कुल नहीं सुन सकती। हम को भी कभी कभी बाज़ार में मिल जाती है।”

रामू के जाने के बाद, बहुत देर तक मैं उसी के बारे में सोचता रहा। और पता नहीं क्या हुआ, मैं अपना अख़बार उठा कर अन्दर आ गया…

उसके बाद से मेरा बर्ताव उसकी तरफ़ कुछ नर्म पड़ गया। एक रोज़ सूसायीटी के सेक्रेट्री से ही उनके नाम मालूम हुये।

“वो पारसी बावा है नां ‘फिरोज’ बीवी के नाम पर फ़्लेट लिया है उसने। लव मैरिज छे!’’ सेक्रेट्री बोला।

फिर कुछ अरसे के बाद मालूम पड़ा, फिरोज़ म्युजि़शन है और फि़ल्मों में रीकार्डिंग पर जाता है…फि़ल्मी गानों में किलेरिनेट बजाता है। सुना ‘ओ-पी-नैयर’ के गानों में बहुत काम मिलता है उसे।

मेरी ये भी एक आदत थी कि गाड़ी चलाते हुये, रेडियो आॅन कर देता था और फि़ल्मी गाने बजते रहते थे। उस दिन कान पड़ा, “पिया पिया पिया, मोरा जिया पुकारे” फ़ौरन ध्यान आया ये धुन मैं खिड़की में सुन चुका था। उसके बाद जब कभी किलेरिनेट, सुनायी देता किसी गाने में तो अपने आप ही एक मुस्कुराहट आ जाती मुंह पर। एक खिड़की खुल जाती।

मेरा बालकनी में अख़बार पढ़ना तो कम न हुआ लेकिन झड़पें कम हो गईं। जैसे ही वो खिड़की में बैठ कर अपना रियाज़ शुरू करता, मैं एक ग़ुस्से की निगाह देकर, कान खुजाता हुआ अन्दर आ जाता। और एक दिन तो मुंह से भी निकल गया।

“जा भाड़ में। बजा ले अपनी थूथनी। अबे वो भी बहरी न होती तो कब की छोड़ गई होती तुझे!”

उसने कोई परवाह नहीं की। बजाता रहा अपनी किलेरिनेट। पता नहीं उसने भी सुना कि नहीं।

 

फिर एक रोज़ कार में देखा निकलते हुये। किसी फि़ल्म प्रोडक्शन की कार थी। अपने साज़ का डिब्बा लिये ठाठ से पीछे बैठा था। पता चला फि़ल्म इन्डस्ट्री में काफ़ी मशहूर “किलेरिनेट” प्लैर है।

“वो म्युजि़क डायरेक्टर छे नी (जय देव भाई) नीरा उनकी भांजी छे। उनके गानों में तो किलेरिनेट होताईच है।”

 

रफ़तार रफ़तार फि़रोज़ की तरफ़ भी मेरा रव्वया नर्म पड़ने लगा।

अब कभी कभी वो खिड़की पर बजाता तो मैं, बज़ाहिर अख़बार पर नज़र रखता, लेकिन मेरे कान उसकी खिड़की पर लग जाते।

एक रोज़ देखा सेक्रेट्री हंस हंस के कोई बात सुना रहा था नीरा को। वो भी हंस रही थी। वो क्या कह रहा था मेरी समझ नहीं आया क्यों कि शुद्ध काठयावाड़ी गुजराती में बोल रहा था।

मुझे आता देख कर, वो मुड़ी मेरी तरफ़ और हाथ जोड़ कर नम्सते की, और फिर हाथ के इशारे से सेक्रेट्री से कहा कि ‘चलूं!’ उसने फिर गुजराती में जवाब दिया।

“आओ जो!”

वो चली गई। मैं पहुंचा तो, पूछा।

“तुम गुजराती में क्या कह रहे थे उसे?”

“अपने बचपन की बात बता रहा था। कैसे गूंगा बन के मैंने एक ट्रेफि़क पोलिस मेन को बेवक़ूफ़ बनाया था।”

“तो गुजराती में क्यों बोल रहे थे?”

“भाई साहब! जब सुने ही नहीं तो गुजराती में क्या अंग्रेज़ी में क्या? एक ही बात छे नई!”

मैंने कुछ ताजुब से कह दिया।

“हां वो तो है पर—”

“पन पूरी वात समझे छे। एक चुप की भाषायें आ गईं सर। पता नहीं होवे, तो पता भी न चले कि गूंगी छे!”

“गूंगी नहीं बहरी!”

“एक ही बात छे। सुने नहीं तो बोले कैसे?”

“पर कमाल ही करती है…” कह के मैं निकल गया।

 

फिर एक वक़्त आया जब वो खिड़की बहुत दिनों के लिये बंद रही, और एक अजीब एहसास हुआ। मेरा अख़बार पे ध्यान लगता कम हो गया। बीच बीच में रुक जाता और खिड़की की तरफ़ देखता। और फिर बेवजह ही अख़बार और चाय लेकर अन्दर चला जाता। गुजराती भाई से पता चला कि फि़रोज़ हस्पताल में है, और नीरा दिन रात उसके साथ ही रह रही है। “कभी कभी पीछे की बालकनी में लगे गमलों को पानी देने आती है। कुछ चीज़ें ले जाती है, कुछ रख भी जाती है।” मैंने पीछे की खिड़की से जा कर देखा तो छोटे-छोटे पौदे सारे ही मर गये थे। कुछ केक्टस थे जो बचे थे, और चम्पा का बड़ा सा पौदा था। जो हरा था। वो भी बहुत दिन नहीं रहा।

बहुत दिन लग गये फि़रोज़ की बीमरी में। कई महीने। शायद साल भर। एक रोज़ बालकनी से देखा कुछ लोग उनकी सूसायेटी के बाहर जमा होने लगे थे। अख़बार के ऊपर ही से एक दो पहचाने से चेहरे नज़र आये। शायद सिंगर थे। या म्युजि़क डायरेक्टर। अख़बार में छपी तस्वीरें देखी थीं। एक शक गुज़रा ज़हन से और साथ ही एक हस्पताल की एम्बोलेंस पहुँच गई।

फि़रोज़ का इन्तेक़ाल हो गया था।

 

लाश थोड़ी सी देर, शायद एक दो घन्टे, रही घर में और फिर उसी एम्बोलेंस में वापिस चली गई। नीरा कहीं नज़र नहीं आई…

सेक्रेट्री भी कहीं नज़र नहीं आया। इस लिये कोई तफ़सील पता ही नहीं चल सकी। सोच लिया। चाहे इशारों ही से बात करनी पड़े। नीरा आई तो ज़रूर मिलूंगा। और अफ़सोस करने जाऊंगा।

एक आध महीना ही गुज़रा होगा कि देखा उस घर का सामान बाहर निकाल के एक लारी में भरा जा रहा था। शायद ख़ाली क्या जा रहा था। मुझे तशवीश हुई। मैं नीचे चला गया!

 

सेक्रेट्री ने बताया, “घर बिक गया है!”

“किस ने बेचा? नीरा ने?”

“नहीं! पता नहीं। वो जयदेव भाई का आदमी आता था। कुछ दिन से सूसायीटी में। वही सब कर के गया।”

“नीरा कहां है?”

“पता नहीं भाई साहब। अभी किस मन से आवेगी उसी घर में।”

उसी वक़्त सामान में एक व्हील चैर बाहर आई तो मैंने पूछा।

“ये व्हीलचैर किस की है?”

“फीरोज भाई की! अपाहिज था नई। नीचे का आधा धड़ तो था हिच नहीं।”

“क्या?” मेरी चीख़ निकलते निकलते रह गई।

“वो भी? मतलब दोनों—” ‘अपाहिज’ कहते कहते रुक गया।

“हम से ज़्यादा पूरे थे भाई साहब।” गुजराती भाई बोला। उसकी आंखें नम हो गईं।

जब ट्रक वहां से चला।

मैं अब बालकनी में बैठ कर अख़बार नहीं पढ़ता हूं। वो खिड़की बंद रहती है। लेकिन एक किलेरिनेट की आवाज़ अक्सर मेरे कानों में गूंज उठती है।

Gulzar is a poet above all things. He started his career as a lyricist in the 1963 film Bandini and worked with many music directors including R. D. Burman, Salil Choudhury, Vishal Bhardwaj and A. R. Rahman. He directed films such as Aandhi and Mausam and TV series during the 1970s and 1980s. He was awarded the Padma Bhushan, the third-highest civilian award in India, the Sahitya Akademi Award and the Dadasaheb Phalke Award—the highest award in Indian cinema. He has won several Indian National Film Awards, Filmfare Awards, one Academy Award and one Grammy Award.

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