क्या करें कि वक्त ही ऐसा है. जो है वो हिदायत है. क़ानून की किताब से लेकर सार्वजनिक शौंचालयों तक हिदायत ही तो हैं. ऐसा न करें, वैसा न करें. हिदायत की बीमारी अचानक से महामारी बनकर फैल रही है. कुछ एक लोग हैं जो इसे अपने वाइरल वार वीपंस की तरह इस्तेमाल कर रहे हैं. मसलन, पूर्वोत्तर की ताज़ा घटना को ही ले लीजिए. कुछ लोग एक लड़की को हिदायत दे रहे थे कि वो रात को घर से बाहर निकले या न निकले. कपड़े पहने और कैसे पहने. क्या पिये और किसके साथ जिए.
इसके बाद महिला आयोग की अध्यक्ष पूरे लबरेज मेक-अप में प्रेस से मुख़ातिब होकर बोलीं, कपड़े सलीके से पहनो. अरे वाह, यहाँ भी हिदायत. वैसे बता दें कि ये वही महिला हैं जिन्होंने कहा था कि सेक्सी शब्द से उन्हें कोई आपत्ति नहीं है. मुझे भी नहीं है पर यह हिदायत अपच कर रही है.
हिदायत का जूता सिर पर कलश की तरह रखा है. सोनिया के भोज से ठीक पहले जद(यू) के शरद यादव ने हिदायत दे डाली कि कोई भी सांसद भोज में शामिल नहीं होगा. समर्थन केवल राष्ट्रपति चुनाव तक. इससे पहले सोनिया और मायावती अपने सारे विधायकों और सांसदों को दिल्ली में अस्तबल के अंदर चुपचाप स्विच-ऑफ़ बैठने की हिदायत दे चुकी थीं ताकि कहीं बौराए वोटों को कोई नोटों की हरियाली दिखाकर खरीद न ले.
अन्ना की हिदायत रामदेव के साथ आई. कालेधन का साम्राज्य बनाकर अजगर की तरह बैठा एक पेट हिलाने वाला बाबा एक कथित गांधीवादी के साथ काला धन वापस लाने की हिदायत गा रहा है. कह रहे हैं कि हिदायत कुबूल करो वरना अबकी तो जान देकर ही उठेंगे. पता नहीं क्यों, सवा लाख किसानों की आत्महत्या करवा चुकी सरकार और उसके नेता इन एक-दो जानों को बचाने के लिए उनसे गोपनीय बातचीत कर रहे हैं.
जेलों में एक हिदायत की मार झेल रहे लोगों की तो कोई सुनवाई ही नहीं है. हिदायत यह है कि माओ, भगत सिंह जैसे लोगों की किताबें मत पढ़ो, उनको अपने घर में मत रखो, उनकी ओर देखो तक नहीं वरना वेज़िंग वार और सेडिशन जैसे कोड़े पीठ को लाल कर देंगे. अण्डाकार जेलों में बिना करवट के अच्छी-भली देह को परवल बना देंगे. जिन्होंने यह बात नहीं मानी और भगत सिंह, माओ, मार्क्स की किताबें खरीदीं, उनमें से कुछ जेलों में हैं. कुछ अपनी बारी की बाट जोह रहे हैं.
एक वरिष्ठ वामपंथी पार्टी (जैसा की दावा है) की हिदायत यह भी है कि जो कुछ गिरेगा, ऊपर से गिरेगा. नीचे खड़े को केवल लपकना है और सिर माथे लगाना है. सवाल करना मना है. सवाल न करने कि हिदायत के बावजूद जिन्होंने मुंह खोला है उनकी छात्र वाहिनियों को भंग कर दिया गया है. उन्हें पार्टी से निकाल दिया गया है.
हिदायत यह भी है कि अगर रात को गलती से भी अपने गांव में बैठक जमाई तो जिस जगह से हगते हो, पुलिस वहीं पर गोली मारेगी. यह भी नहीं देखेगी कि तुम अबोध लड़के हो, नाबालिग लड़की हो या फिर उम्र के आखिरी पड़ाव पर खड़े बुज़ुर्ग. नौजवान और अधेड़ तो ख़ैर होते ही नक्सली हैं. इन्हें मारे बिना कहां फतह हासिल होगी. सो, साले जहाँ मिलें, मार गिराओ. अब दिन को तो तब खेत और मजदूरी में रहते हैं. ऐसे में नरसंहार के लिए राइफलों का मुंह रात को ही खोला जा सकता है. मारो साल्लों को… ठोक दो.
हिदायत सिने स्क्रीन पर भी है. एक भटकेले और दुविधाग्रस्त, निहायत कन्फ्यूज़्ड निर्देशक ने वासेपुर की कहानी में कबूतरों के वो लतीफे भर दिए हैं जिनका इस्तेमाल मज़ाक के तौर पर लखनऊ और भोपाल के एक ख़ास किस्म के नवाबी तबीयत के लोगों के लिए होता रहा है. ऊपर से ये जनाब अपनी फ़िल्म में हिदायत दे रहे हैं कि- तेरी कह कर लूंगा. अब बताइए. इस खुलेआम जारी हिदायत का क्या किया जाए.
एक वैश्विक हिदायत आजकल भारत को घेरे हुए है. हर तरफ से. सिंगापुर के प्रधानमंत्री से लेकर अमरीकी राष्ट्रपति बराक़ ओबामा एक सुर में भारत को आर्थिक रुप से और खुले, यानी नंगे और कामातुर होने की हिदायत दे रहे हैं. वे चाहते हैं कि सारे द्वार खोल दिए जाएं और भारतीय बाज़ार को विदेशी निवेश और पूंजी से पाट दिया जाए. हर तरफ डॉलर ही डॉलर नज़र आए. इस हिदायत के पीछे वैश्विक समुदाय की अपनी दुकानदारी छिपी है न कि भारत की आर्थिक उन्नति. बल्कि इससे, पहले से ही दीमक लगी भारतीय अर्थव्यवस्था में संक्रमण और पीप और ज़्यादा बढ़ जाएगा. पता नहीं क्यों नीली पगड़ी वाले ईमानदार पीप का यह टोकरा अपने सिर रखकर घूमने को तैयार हैं. कामातुर हैं. उत्तेजित हैं.
हिदायतों के इस संसार में सांस लेने में भी कष्ट होने लगा है. सारे उदाहरण तो गिना भी नहीं सकता. फ़ैज़ की पंक्तियां ध्यान आती हैं-
“निसार मैं तेरी गलियों के, ऐ वतन, के जहाँ
चली है रस्म के कोई न सर उठा के चले.”