जब भाषा हत्याएं करने लगे

पंखों से झूलकर लटकी हुई लाशों के पीछे केवल जान दे देने की स्वइच्छा नहीं होती. परिस्थितियां उन्हें झूलने पर विवश करती हैं. इसीलिए हर आत्महत्या दरअसल एक हत्या ही है. हत्या, जिसे करनेवाले अपने हाथों को न तो फंदे तक लाते हैं, न गले तक लेकिन बहुत शातिर और कामयाब तरीके से अपने निशाने को मौत पहना देते हैं.

 

हम पूंजी, बाज़ार, वर्ग-वर्चस्व और अभिजात्य शैलियों को साधने वाली भाषा की गुलामी में इस क़दर अंधे हो चुके हैं कि बाकी क्षेत्रीय भाषाओं के विकास को या तो हमने नौकरशाही की नकेल लगाकर स्थूल, अ-रचनात्मक और नीरस कर दिया है और या फिर उन्हें किसी एक वर्ग की सीमाओं तक ही सिमटे रहने के लिए बाध्य कर रखा है. आप बंगाल में हों या उत्तर प्रदेश में, कर्नाटक में हों या कुमाऊं में… आपको विज्ञान, आयुर्विज्ञान, भौतिकी, रसायन, गणित आदि से लेकर बाकी का सारा तकनीक एवं वैज्ञानिक अध्ययन अंग्रेज़ी में ही करना होगा. क्षेत्रीय भाषाओं में इन अध्ययनों के लिए न तो शब्दकोश हैं, न पाठ्यक्रम और न ही ऐसी कोई तैयारी करने की इच्छाशक्ति. यह कैसी विडंबना है कि आपको मछली खरीदने के लिए अपनी भाषा का प्रयोग करना होगा लेकिन मछली समझने के लिए दूसरी. हम मछली, वनस्पतियों या न्यूटन के सिद्धांतों को उन्हीं भाषाओं में क्योंकर नहीं समझ सकते जिनमें हमने अपनी सोच, संस्कृति और समाज को सांस लेते देखा है.

 

दिल्ली स्थित अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान में पिछले दिनों अनिल की आत्महत्या ने एकबार फिर से अंदर तक हिलाकर रख दिया है. राजस्थान के बारां ज़िले का यह छात्र 12वी तक हिंदी माध्यम का छात्र था. किसान का बेटा था. चार भाइयों में सबसे बड़ा. परिवार की आशाओं का सबसे मज़बूत खंभा. पढ़ने में अच्छा था. देश की सबसे मुश्किल मेडिकल प्रवेश परीक्षा को पास किया और एम्स में दाखिला लिया. पर अंग्रेज़ी में धाराप्रवाह बहते लेक्चरों और मोटी-मोटी किताबों में घिरा यह छात्र असहज होने की उस सीमा तक जा पहुंचा जहाँ आप विज्ञान को रास्ता खोलने वाले मसीहा की तरह देखें और सामने सिर्फ शून्य ही शून्य नज़र आए. परीक्षाओं में फेल होता गया. नंबर कम आते गए और जीत कर भी हारा महसूस कर रहे इस छात्र ने खुद को फांसी लगा ली.

 

याद करता हूं कि मैं भी तो विज्ञान का ही छात्र था. अच्छे अंकों से जीव विज्ञान और कैमिस्ट्री, फ़िज़िक्स पास किए थे. तब त्रिकोणमिति होती थी, अंकगणित होता था, निर्देशांक ज्यामिति होती थी, ज़्या और कोज़्या थे, आधार, लंब और कर्ण से पाइथागोरस प्रमेय समझी जाती थी. जब रेज़ोनेन्स के लिए अनुनाद था, हर्टज़ में मापी गई चीज़ आवृत्ति होती थी. हमने राना टिग्रीना भी पढ़ा. एंटअमीबा हिस्टोलिटिका भी, डकविल प्लेटिपस भी. पर पता नहीं क्यों किताबों में जैसे-जैसे विज्ञान की कहानी और अवधारणाओं को समझने के लिए गहरे उतरने की कोशिश की, मेरे लीवर को यकृत कहने पर लोग हंसे. मैंने हिप्पोपोटैमस को गेंडे की सहजता से समझना चाहा तो मुझे पिछड़ा, अज्ञानी और असभ्य माना गया. मुझे ताज्जुब होता है जब भाषा और उसका नियंता राना टिग्रीना को आसानी से निगलकर मंडूक की हत्या कर देता है. आखिर क्या असहज लगता है मंडूक में जो राना टिग्रीना में नहीं है… उसके पीछे की सत्ता, बाज़ार और वर्ग-वर्चस्व की बाड़.

 

यूरोप के अधिकतर देशों में या एशिया महाद्वीप के अधिकांश देशों में सत्ताओं ने अंग्रेज़ी के साथ अपने क़दम भी मिलाए हैं और साथ-साथ अपनी भाषा को भी आगे बढ़ाया है. जर्मन छात्र अपनी ही भाषा में विज्ञान और गणित पढ़ सकता है. फ्रांसीसी अपनी ही भाषा में दुनियाभर की कला और साहित्य को पढ़ सकता है. जापानी और चीनी अपनी ही भाषाओं में तकनीक के सर्वश्रेष्ठ अविष्कार और उत्पाद दे सकते हैं. पर ऐसी कौन सी विवशता है जिसने भाषाओं की दृष्टि से दुनियाभर में सर्वाधिक समृद्ध देश को केवल हिंदी ही नहीं, सभी भाषाओं के पैर काटने और उन्हें अंग्रेज़ी की बैसाखी पर जबरन चढ़ाने के लिए मजबूर किया है.

 

मुझे अनिल की आत्महत्या में हत्याओं की एक बड़ी साजिश फिर से संदेह पैदा करती मिलती है. ये हत्याएं एक बहुमत समुदाय के संवाद और ज्ञान की हत्या है. ये हत्याएं किसी समाज में बहुमत के सांस्कृतिक अस्तित्व और सामाजिक बोध के संचार की हत्या है. ये हत्याएं उस संभावना की हत्या है जिसमें वर्गों की सीमा से आगे निकलकर योग्यता अपना सिर उठा सकती है.

 

अंग्रेज़ी अपनी भाषा और परिवेश के बाहर की दुनिया को समझने की सीढ़ी हो सकती थी पर सीढ़ियों पर ज़िंदगी काट देना और अपनी ज़मीन को खो देना कहाँ की समझदारी है. यही बुनियादी फर्क है भाषाओं की सामाजिक सत्ता का कि आयातित भाषा हत्याएं करती है जबकि मातृसत्ता की भाषा बचाती है, पालती है, सुरक्षा देती है. पर मां जब कमज़ोर हो, ग़रीब हो और निर्धन हो तो पैर उखड़ने लगते हैं और वो एक छोटी-सी चाहरदीवारी को अपना संसार बना लेती है. इस सिमटे हुए संसार से जब कोई बच्चा बाहर निकलता है तो आसमान सहज नहीं होता, रास्ते अपरिचित और अकेले होते हैं. ऐसे में, किसी अपरिचित भाषा को बलात ही अपनाना एक विवशता होती है और हमारा बहुमत इसी विवशता को नियति समझकर इसके आगे आत्मसमर्पण कर देता है.

 

ग़ौर से देखिए, कितने ही अनिल आत्महत्याओं के लिए रोज़ उकसाए जा रहे हैं. ग्लानि, हीनभावनाओं, अपमान, पिछड़ेपन और कुंठाओं का फंदा उनके गले में डालकर एक व्यवस्था उनकी हत्या कर रही है और हम चुपचाप देख रहे हैं. हमें पता है कि हममें से कुछ नहीं करेंगे आत्महत्या क्योंकि हमारे पास अंग्रेज़ी के शब्दकोश हैं. पर हत्या तो हो चुकी है. हमारी भी, हमारी भाषा की भी. हमारी संभावनाओं की भी.

 

अनिल के किसान पिता से पूछिए कि अंग्रेज़ी कैसी भाषा है.

From a slum based tabloid to BBC world service, over the last 12 years, Panini Anand has worked as a journalist for many media organizations. He has closely observed many mass movements and campaigns in last two decades including right to information, right to food, right to work etc. For a man who keeps a humble personality, Panini is an active theatre person who loves to write and sing as well.

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