यह लौंकी खाने की आदत जैसा है. आसानी से गल जाए, आसानी से पच जाए. स्वास्थ्य के लिए मुफीद. लंबे जीवन की ओर ले जाए. चित्त को शांत रखे, व्याधियों-विध्नों को दूर रखे. जूस से लेकर हलवे और शाम की सब्ज़ी तक. हर वक्त इस्तेमाल के काबिल. लौंकी की बात इसलिए क्योंकि लौंकी ही टार्गेट हैं. पहले लौंकी बिक रही थी. बीच में तो जमकर बिकी और अब लौंकी के बारे में ताज़ा खुलासा हुआ है कि लौंकी धोखा दे रही है इसलिए जिसके हाथ जैसा चाकू लग गया है, लौंकी पर हमला बोल दे रहा है. लौंकी टुकड़े-टुकड़े होकर बिखरती नज़र आ रही है. स्क्रीन इसे एक्सक्लूसिव भंडाफोड़ बता रहा है. अभी अभी ज्ञान प्राप्त ऐंकर सवाल पूछ रहे हैं… करन थापर शैली में. लौंकी पानी-पानी है. क्योंकि पानी ही तो है. बाकी कुछ ठोस कभी था भी नहीं. आइए, सीधे मुद्दे पर आते हैं.
एक बाबा हैं. नाम के निर्मल हैं. धंधेबाज़ हैं. हिंदी में जिन चीज़ों के लिए हरामखोर जैसे शब्द बने थे, उनको जीवंत करते हैं. विज्ञान की किताब पर पेशाब कर गोलगप्पे, समोसे और पेस्ट्रियों के ज़रिए सत्य समझाते हैं, कृपा बरसाते हैं. मैं अव्वल तो टीवी नहीं देखता. यदा-कदा देखा भी तो ज्योतिष, पंचांग, निर्मल बाबा और स्काईशॉप कार्यक्रमों पर बिना देर किए चैनल बदल देता हूं. बेहूदा चीज़ों को देखने से अच्छा है कि टीवी को खामोश रखा जाए. फिर चाहे जो भी करें, न करें तो सो जाएं पर इनसे दूर रहें. अपना यही सिद्धांत है.
पर मेरे सिद्धांत से न तो टीवी चलता है और न ही बाबागिरी का धंधा. बाबागिरी के नाम पर आध्यात्म में आसन जमाकर चवन्नी बटोरने का धंधा धरती पर सबसे पुराना है. बिना लाइसेंस लूट का परमिट. देश के और दुनिया के हर कोने से उठाकर देख लीजिए. धर्म एक ऐसा धंधा है जिसके बाज़ार में मंदी कभी नहीं आती. बाकी बाज़ार में मंदी आती है तो पोप की दुकान हो या तावीज देने वाले बाबा की, आर्ट ऑफ लिविंग सिखाने की दुकान हो या चूरन और योग करवाने वालों की. इनका धंधा और तेज़ हो जाता है. परस्पर प्रतिस्पर्धा तो है पर कुल मिलाकर देखिए तो बाबागिरी का सेंसेक्स कभी नहीं गिरता. पूंजीवाद के मवाद ने इन्हें और खाने-खुजाने का अवसर दे दिया है. निर्मल बाबा उनमें से एक हैं.
अधिकतर चैनल बाबा को प्रसारित करते रहे. महीनों… नकदी एकाउंट डिपार्टमेंट में जाती रही. समोसे की कीमत से तनख्वाहें बनती रहीं. एडिटर और सेल्स की टीम वजीफे लेती रही. बाबा ठनक के साथ पैसे देता और फिर लोगों से समोसे गोलगप्पे की बातें करता. झकाझक कपड़े, चमाचम सिंहासन और एक एसी ऑडिटोरियम में भक्त. कुछ अपेक्षित, कुछ अंधविश्वासी और अधिकतर प्रायोजित.
पर प्रश्न इससे बड़ा है. मसला लौंकी पर ही क्यों आकर अटक जाता है. बाबा का नाटक क्या पहले दिन से समझ में नहीं आ रहा था. क्या सोचकर उनको अनुमति दी गई थी. दर्शकों के मानस के साथ बलात्कार करने जैसा है ऐसे कार्यक्रमों का प्रसारण. कभी सोचा है कि बच्चों, महिलाओं और एकाकीपन में सिमटे बुजुर्गों पर, हर ओर से लाचार हो चुके युवाओं पर इस तरह के अंधविश्वास का क्या असर पड़ेगा. क्यों हम एयरटाइम बेचते वक्त इतने पाश्विक, संवेदनहीन और घिनौने हो जाते हैं? मेरी नज़र में दोष बाबा का जितना भी हो, आज इस बहस के समय दोष उससे भी ज़्यादा उसे हीरो बनने के लिए समय बेचने वाले चैनलों का है. और मज़े की बात देखिए कि वही चैनल अब बाबा की क्लास ले रहे हैं. इन क्लासों के भी एक्सक्लूसिव राइट्स हैं. इसीलिए क्लास लेने का क्रम भी टीआरपी के लिए कमाल साबित हो रहा है.
अगर भारतीय मीडिया चैनलों को बाबा के स्वांग से इतना ही असंतोष है, उन्हें अपनी पत्रकार के रूप में भूमिका और ज़िम्मेदारी इतनी ही याद आ रही है तो फिर एक बाबा ही क्यों, आगे बढ़िए और खोल दीजिए ऐसे तमाम बाबाओं, महंतों, मौलानाओं की टोपियाँ, धोतियां, लुंगियां जो धर्म का धंधा चला रहे हैं. पर अफसोस कि आप काटेंगे भी तो केवल लौंकी को. श्री श्री रविशंकर हों, बड़े चूरन वाले बाबा हों, हत्यारे शंकराचार्य हों, दैहिक शारीरिक शोषणों की कहानी कहते मठ और मदरसे हों, आप किसी की बात नहीं करेंगे. कॉर्पोरेट परिधि के बाबाओं की तो कतई नहीं. आप निर्मल बाबा को तो मारने के लिए तैयार हैं पर उससे आगे न तो धर्मांधता को मारना आपका मकसद है, न धर्म के ठेकेदारों को और न ही उनके पोषक व्यापारी वर्ग और औद्योगिक घरानों को.
कितना आसान होता है न किसी को चंबल में मार गिराना. पर किसी को दिल्ली में उससे लाख गुना बड़े अपराधों के लिए मारना हो तो पूरा सिस्टम दोषी को ही निर्दोष साबित करने में, उसे बचाने में और उससे प्रतिकार करने वाले को नेस्तनाबूत करने में अपना सारा दमखम लगा देता है. इसीलिए दिल्ली में एक वर्ग विशेष के अपराध कभी भी ख़बरों में नहीं आते. वो मंत्री भी हैं, बाबा भी, योजनाकार भी, नौकरशाह भी, राजघराने वाले भी. उनपर सब चुप हैं. बाबा पर सोशल मीडिया ने झंडा उठा लिया इसीलिए चैनलों को सोचना पड़ा. सच को कहना पड़ा. पर सच भी कहा तो किसका और कब और कितना. सचमुच, कितना घिनौना, शातिर और गंदा हो चुका है ये पूरा खेल. खेल जो लाइव भी है और रिपीटेड भी.
हे, चैनलों के महान भंडाफोड़कर्ता मूर्धन्य पत्रकारों. मुझसे नहीं, अपने आप से पूछिए, निर्मल कौन है और कितना है.
(कुछ समय पहले एक कविता लिखी थी…. दिल्ली के कुछ मंदिरों में लार टपकाते महंतों, पुरोहितों को देखने के बाद. इस लेख के साथ उसे भी ज़रूर पढ़ें)
पूजाघर
अकेली डरी हुई लड़की के
स्तनों की तरह
आस्थाएं, मजबूर करती हैं
कोहनियों की ओट
और चुन्नी की सिलवटों में
अपने आकार को छिपाने के लिए
रचे हुए नियमों में
रस्मों में
पाखंडों में
नाप दिया जाता है
ईश्वर का विस्तार
और
धधकते कपूर के सिर पर
काला गहरा धुंआ छा जाता है.
घंटियां
यौन उद्दीपनों की तरह
मंदिर की दहलीज़ पर
तोड़ देती हैं नारियल
आंखें, संतृप्तता की प्यास से भरी
ढिबरी पर
पतंगों की तरह मड़राने लगती हैं
कलाबाज़ी खाता बंदर
नहीं जला पाता इस लंका को
और दरबार का दास बनकर
नतमस्तक हो जाता है
धनुर्धरों के सामने
प्रत्यंचा
तने हुए यौवन पर
तोड़ देती है धनुष
पंडित, सुनार की तरह
लपक लेता है पिघला सोना
धंधा, अफीम के चुल्लू में
समझा देता है मोक्ष
और कमंडल
तृष्णा से
बुझा देता है प्रश्नों को
इस पूरे संस्कार में
जो कुछ मुझसे काटा-छीना जाता है
प्रसाद बन जाता है.
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