कौआ गणराज्यः क्रांति का कांय कांय

तो जनाब, आज की मुमकिन बातचीत में कई दिनों की चुप्पी की बाद आपसे मुख़ातिब हूं. बातचीत का मुद्दा इतना पुराना नहीं है. सूर्य दक्षिणायण की कथा है, उत्तरायण में ध्यानार्थ प्रेषित है. कथा कुछ इस तरह है कि संजय धृतराष्ट्र की लाइब्रेरी में बैठकर पिछले कुछ वर्षों के लाइव टेलीकास्ट रिकॉर्ड देख रहा है. सारा फुटेज रिवाइन्ड और फिर फास्ट फारवर्ड करके. नज़र कुल छह जगहों पर रुकती है. चार बड़े आंदोलन और दो बड़े युद्ध. देश को हिला देने वाले. टीवी का और दिमाग का सर्किट जला देने वाले. एकदम झकझोर कर जगा देने वाले. पहला टेप नज़र आया जस्टिस फॉर जेसिका का. लगा कि इस लड़ाई के बाद अपराधियों की औलादों का कमज़ोर महिलाओं पर बेवजह हिंसा का सिलसिला रुक जाएगा. न्याय की लड़ाई है, लड़नी होगी. प्रायोजित मोमबत्ती, बैनर और हैडलाइन के साथ- नो वन किल्ड जेसिका. दूसरा आंदोलन दिखाई दिया दिल्ली के एम्स (अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान) से लेकर आईआईटी तक. असमानता की वंशावली के ये रक्तबीज अपने आंदोलन को यूथ फॉर इक्वैलिटी के नाम से प्रचारित कर रहे थे. इधर लाठी चली, उधर फ्लैश चमका, फिर पानी की बौछार भीड़ पर और कैमरा पैन हुआ. एकदम लाइव. सचमुच, देश का सबसे अच्छा युवावर्ग यानी सर्वश्रेष्ठ बौद्धिक क्षमता से लैस भविष्य के जवाहर अगर सड़कों पर उतर आएं तो दिल में हलचल पैदा हो ही जाती है. लगता है देश हिलने, संभावनाओं और उम्मीदों के सारे दरवाज़े बंद. बस, अब तो प्रलय से पहले कुछ नहीं रुकेगा. बताइए, जिनके हाथ में पटरी-परकार और आले होने चाहिए थे, वे प्रदर्शन कर रहे हैं, हड़ताल और अनशन कर रहे हैं. सचमुच, देश गर्त में चला गया है. मनी प्लांट इज़ डेड, चेंज द वाटर.

 

इन दो आंदोलनों के बाद एक ब्रेक और ब्रेक के बाद युद्ध. 26-11 के हमलों के बाद का युद्ध. एक कउवा टीवी की मुंडेर पर आ बैठा. गोली भी नहीं चली पर कांय कांय करन लगे. चाइना गेट के जगीरा माफिक. इनके पास दोनों के लिए माल था. जो अमन पसंद थे, उनके लिए ये अमन की आशा चला रहे थे. जो अमन के सिद्धांत को बुज़दिली की खटिया समझकर लेटने से इनकार कर चुके थे, उनके लिए युद्ध. एकदम लाइव. नाउ नाउ करते करते वार नाउ में तब्दील न्यूज़ रूम. वार इन द पॉप-अप विंडो. दनादन गोली. हाथ पटक-पटककर धरती हिला दी. पाकिस्तान की ईंट से ईंट बजा दी. इतना शोर अटारी-वाघा बॉर्डर पर रिट्रीट में नहीं होता जितना टीवी पर हो रहा था. लोगों को ये तक लगने लगा कि कितने दिन का आटा-दाल स्टोर कर लिया जाए. कुछ समझा रहे थे कि दिल्ली पर परमाणु बम नहीं गिरा सकते क्योंकि लाहौर भी चपेटे में आ जाएगा. हां, मे बी, बंगलौर, ऑर मुंबई- पॉसिबली.

 

ख़ैर, तीसरा आंदोलन तो जेपी को पानी और अन्ना को निंबूज़ पिला गया. संपूर्ण क्रांति नाम का विमान हाइजैक, जेपी को बिना पैराशूट के नीचे फेंक दिया गया. बस एक भीखू मातरे…. अन्ना. अख्खा आंदोलन का डॉन कौन… अन्ना. अन्ना और उसके साथ मीडिया चौकन्ना. सरकार लूट रही थी, मीडिया लूट रही थी, टोपी लुट रही थी. मीडिया पानी में बहते शवों पर मछलियों की तरह टूट पड़ा था. लगा, अब काहिरा से पहले तहरीर की चौमुहानी भारत में तैयार हो जाएगी और वहाँ से परिवर्तन की एक नई सड़क जाएगी. इस सड़क पर लैम्प पोस्ट लगेंगे और झिलमिल सितारों का आंगन होगा. चौथा टेप दिसंबर की दिल्ली का. रात को बेशर्म हो जाता है ये शहर और इसकी नीयत शवों पर खड़े होकर फल तोड़ने के लिए लपकने लगती है. इसी अंधेरे में सोई सत्ता और सदैव आपके साथ रहने वाली दिल्ली पुलिस की नाक तले होता है एक बलात्कार. फिर क्या… अगले दिन से दिल्ली में रेप के बाद की रिपोर्टिंग. यही युद्ध और अन्ना अभियान वाले टीवी संपादक ने तय किया कि ऐसे काम नहीं चलेगा. लंगर चालू करो. बंगला साहिब गुरुद्वारा स्टाइल. बिना रुके. नॉन स्टॉप. बीच में रैना का लड़की पटाने वाला विज्ञापन, साथ में एक्स डियो का विज्ञापन जिसमें कर्मचारी की पत्नी, पति के बॉस के कपड़े उतार देती है. मूसली पावर, टांगों को चिकना, बाल रहित औ चेहरे को गोरापन देने वाले विज्ञापन. ऐसे बेहिसाब विज्ञापनों के बीच रेप पर रिपोर्टिंग जारी रही. किसानों, मजदूरों के लिए, कामगारों और भूमिहीनों के लिए बंद बोटक्लब और राजपथ पर फिर से मोमबत्तियां, कैमरे, युवा, पुलिस, वॉटर कैनन, आरएएफ़… यानी सिविल वार. न प्वाइंट टू मिस इट.

 

बीच में सिर कटे शवों ने लड़ाई को बेनतीजा छोड़ दिया. चैनलों का काम हो चुका था. अघाए हुए पंडे की तरह अब बलात्कार के मुद्दे को वे इतना रौंद चुके थे कि उसमें रुचि नहीं रह गई थी. सो, ओबी मूवमेंट फिर शुरू. फिलहाल देश युद्ध के मुहाने पर खड़ा है. प्रधानमंत्री कठोर हो गए हैं. आगमन वीज़ा पर रोक लग गई है. पाकिस्तानी रंगकर्मियों को नाटक करने से रोक दिया गया है. हॉकी टीम को लौट जाना पड़ा है. सेना प्रमुख गुर्रा रहे हैं. कभी भी काट सकते हैं, ऐसा कह रहे हैं. पाकिस्तान में एक और अन्ना पैदा हो गया है. सिर पर सफेद टोपी है. वहां की सेना भी जूते कस रही है. पैरों के नीचे 115 लोगों के ताबूत हैं पर निशाना भारत की ओर.

 

चैनल फिर सफल. इससे पहले अन्ना को अधिनायक इन्होंने बनाया. जेसिका को न्याय इन्होंने दिलाया. रामदेव को हवाईअड्डे तक लेने के लिए मंत्री इन्होंने भेजे. आम आदमी पार्टी इन्होंने बनवाई. एम्स और आईआईटी में जाति की अंबूजा सीमेंट वाली दीवार इन्होंने खड़ी की. पाकिस्तान को सबक इन्होंने सिखाया. फिर से सिखा रहे हैं. भूखे बिलखते लोगों के शवों पर मौन बैठे प्रधानमंत्री इनके इशारे पर बोल पड़े हैं. सोनिया बलात्कार पीड़िता से मिल आईं. इन सबके दौरान न तो किसी को बाल ठाकरे का अतिरंजित महिमामंडन बुरा लगा और न ही दंतेवाड़ा के एसपी अंकित गर्ग (जिन्होंने सोनी सोरी के जननांगों, गुप्तांगों में पत्थर ठुसवाए और उन्हें यंत्रणाएं दीं) का राष्ट्रपति पदक से सम्मानित होना. देश जब बलात्कार पर बात कर रहा है तो यौनांगों को नष्ट करने और फांसी देने की वकालत गढ़ रहा है. ये एजेंडा भी न्यूज़ रूम से चल रहा है. सड़कों पर बोल रहा है. किसी को कुछ होश नहीं है जैसे. इन घटनाओं के बाद भी जारी हैं बलात्कार, भूख स मर रहे हैं लोग, भ्रष्टाचार निगल रहा है हक़ को, आंखें भेद रही हैं पास से गुज़रते हर शरीर को, जीभें लपलपा रही हैं ज़िंदा गोश्त पर और औरत बिक रही है, रंडीखानों से टीवी के विज्ञापनों तक. आदिवासी महिलाओं के शरीर में घंस रहे हैं सिपाही, घर से दूर अपनी कुंठाओं और अभावों से भरी वीर्य की थैलियां लटकाए. न्यूज़रूम में जारी है शोषण और मवाद पर कोट पहनकर खड़े हैं एंकर, देश को बचाते हुए. एक संपादक, जो दिल्ली की एक अध्यापिका को सरेआम नंगा करवा चुके हैं, उसका फ़र्ज़ी स्टिंग कर चुके हैं, जिंदल के साथ समाचार की सत्ता का सौदा करते पाए गए हैं, उन्होंने लाइव दिखा दी है देश की सबसे बड़ी गवाही. उत्तेजना तानाशाही मांग रही है. वी वॉन्ट मोदी का जयघोष कर रही है. 10 वर्ष पहले के गुजरात के बलात्कार और गर्भ से खींचकर बाहर फुटबॉल की तरह खेले गए भ्रूण स्मृतियों में हों भी तो पर्दों, बातों, बहसों, तर्कों से दूर हैं.

 

मुझे क्रांति का कांय कांय सुनाई देता है. भगोने से उबलकर बाहर आती दिखती है संभावना. कुछ अंधे हाथ अपने-अपने हाथों से समझ रहे हैं क्रांति के आकार और ताप को. मनोरमा की सहेली अभी भी सत्याग्रह पर बैठी है. पॉस्को और कुदनकुलम में मरता भारत किसी को नज़र नहीं आ रहा. गुजरात में बूंद बूंद पानी को तरसते गले और खून में रंगी ज़मीन पर खड़े होते उद्योग. क्रांति का झंडा हाथ में लिए लोग अमरीकी राष्ट्रपति बुश की भाषा बोल रहे हैं- जो लड़ाई में शामिल नहीं, वो लड़ाई के ख़िलाफ़ हैं. दुश्मन हैं. दोस्त बने दिख रहे हैं नेकरधारी और भगवा में लिपटे लोलुप क्योंकि इनके बयानों से अवसरवादी राजनीति की गंगा आगे तक बहती जा रही है. ऐसी क्रांति से मुझे डर लग रहा है. मुझे भी और क्रांति को भी.

 

मैन्युफैक्चरिंग लाइव है. आप देख रहे हैं कंसेंट नाउ. मिलते हैं एक ब्रेक के बाद.

From a slum based tabloid to BBC world service, over the last 12 years, Panini Anand has worked as a journalist for many media organizations. He has closely observed many mass movements and campaigns in last two decades including right to information, right to food, right to work etc. For a man who keeps a humble personality, Panini is an active theatre person who loves to write and sing as well.

Be first to comment