तो चलिए जनाब, आज आपकी मुलाक़ात करा देते हैं एक ऐसे शख़्स से जो शायद आज की मुकम्मल तारीख में भारत के सबसे दुखी इंसान हैं. न, ऐसा नहीं है कि ये अपनी पत्नी से परेशान हैं और न ही इनकी औलाद अव्वल दर्ज़े की हरामखोर साबित हुई है. कर्ज़े जैसे मर्ज़ भी इनके माथे नहीं हैं. गाड़ी चल रही है, बंगला चमक रिया है. चेहरे पर लाली है, चमकदार सूट है. दाढ़ी रोज़ बनती है और मजाल है कि सिर का एक भी बाल कंधी के आदेश बिना इधर से उधर जाने की हिमाक़त भी करे. फिर भी दुखी है. इतने दुखी कि खुद को रोक नहीं पा रहे, उगल-उगल देते हैं अंतर की पीड़ा. एकदम छायावादी हुए जाते हैं. मेरा मन लहक उठता है. सोचता हूं, जयशंकर प्रसाद की तरह कातर, आत्मीय, भावुक नेत्रों से कहूं-
“इस रजनी में कहां भटकती जाओगी? तुम, बोलो तो.
बैठो, आज अधिक चंचल हूं, व्यथा गांठ निज खोलो तो”
और ये लीजिए, गांठ खुल गई. हरहरा के किसी कमज़ोर, पीली-ईंट वाली दीवार की तरह व्यथा का कहरवा सड़कों, चौराहों और नगरों तक फैल गया. पता चला कि मानवीय मानव संसाधन के शिरोमणि श्री रतन टाटा जी आजकल देश की खराब होती छवि से दुखी हैं. भ्रष्टाचार उन्हें कॉन्स्टीपेशन की तरह परेशान कर रहा है. ऐसा मरोड़ पेट में उठ रहा है कि पूछिए मत. निवेश के लिए राज्यों और देश में अच्छा माहौल नहीं है. विदेशी एजेंसियों की नज़र में भारत एक अस्थिर देश साबित हो रहा है. उड्डयन से तो वे इतने दुखी हैं कि भारतीय विमानन का ख्याल आते ही गला भर आता है और आंखें नम हो जाती हैं. उनकी यह वेदना पिछले दिनों खबरों में आई तो लगा कि वाकई इस भूख प्यास से मरते लोगों के देश में इतना व्यापक, विराट और देशभक्ति से भरा दर्द और किसी का नहीं हो सकता. वाकई दर्द में कुछ बात है.
पर ये ससुरा लोकतंत्र और कैटल क्लास समाज, दर्द को समझता ही नहीं. बड़ा बेदर्दी है. दिल्ली में सर्दी है. सदन में गर्दा-गर्दी है. अब ऐसे वैष्णव जन कहां रहे जो पीड़ पराई जाने रे- इसलिए खुद ही कहना पड़ा कि दुखी हूं. लोग और अर्थ न निकाल लें और अन्यथा न लें, इसलिए यह भी बता दिया कि दर्द क्यों है और संकेत दे दिया कि कैसे दूर होगा, कौन दूर करेगा. पर दर्द क्यों है आखिर टाटा जी. आपको क्या कष्ट हो गया. आपको देश की छवि की इतनी चिंता कब से हो गई. अरे, सिंगूर के लोगों के साथ जो हुआ और जिससे वे गुज़र रहे हैं, आपका क्या उससे कोई मतलब है. आपका दर्द तो मोदी जी ने बांट लिया है. सानंद में प्लांट चल रहा है. नैनो बिक रही है. जगुआर धुआं उगल रही हैं. आपका रिटायरमेंट भी हो गया है. काम भी शायद कम हो गया होगा. 26-11 के बाद होटल को और भी ज़बरदस्त प्रचार मिल ही गया था. मरम्मत के बाद और बेहतर भी हो गया है. आजकल अच्छा बिजनेस हो रहा होगा. वैसे भी, इस देश में इतने लोग अपराध और चरमपंथी हमलों से नहीं मरते जितने की आत्महत्या करके या सड़कों पर चलते या कुपोषण, भुखमरी, ग़रीबी और कर्ज़ झेलते हुए मरते हैं. इनका दर्द किसे दर्द लगता है. आपके होटल के सामने 26-11 को सेना का मार्च होता है, लोग मोमबत्ती जलाते हैं. पर इस देश के लाखों घरों में आप जैसों की वजह से चिराग, मोमबत्तियां हमेशा के लिए बुझ चुके हैं.
रही बात देश की छवि और भ्रष्टाचार की तो ये समझ नहीं आता कि आपके टेपों में आपसे मधुर शैली में चहकती नीरा राडिया गुड़गांव में फिर से अपना दफ्तर खोल चुकी हैं. शायद आपका कुछ कामकाज भी देख रही हों. राडिया टेप पर अबतक कई और नए भ्रष्टाचारों का लेप लग चुका है. पता नहीं, राडिया के नए दफ्तर आप गए या नहीं पर खुश तो बहुत हुए होंगे उनके नए मंगलाचरण से. फिर काहे का भ्रष्टाचार और काहे का रोना. हां, अरविंद केजरीवाल की वजह से हो सकता है कि आप थोड़ा दुखी हों क्योंकि उनकी संस्था को सर्वाधिक पैसा आप ही देते थे और हाल की एक प्रेस कांफ्रेंस में उन्होंने आपका भी ज़िक्र कर दिया था. अरे, साफ साफ नमकहरामी है ये तो. पर दिल पर क्यों लेते हैं, ऐसी छोटी-मोटी बातें होती रहती हैं. टेंशन मत लीजिए. नवरतन तेल लगाइए, टेंशन दूर भगाइए.
देश की छवि कोई पीपल पे टंगा लंगोट तो है नहीं जो कि औद्योगिक घरानों से शुरू हो और निवेश पर जाकर खत्म हो जाए. और भी ग़म हैं ज़माने में मोहब्बत के सिवा… छवि के लिए इतना दुखी होते हैं तो मानवाधिकारों के उल्लंघन के लिए कभी सरकार को कोस डालिए पर वो करने से पहले मानवाधिकारों का टिस्को में जारी उल्लंघन रोकना होगा. छवि की चिंता है तो देश के समग्र विकास में भूमिका निभानी होगी पर ऐसा करने के लिए मंत्रिपरिषद में अपने प्यादों की लामबंदी जैसे कितनी ही हरक़तें रोकनी होंगी. छवि सुधारनी है तो देश के अंतिम व्यक्ति को सम्मानजनक जीवन देने की वकालत करनी होगी पर ऐसा करने के लिए आपको संसाधनों की लूट रोकनी होगी. आदिवासियों के संसाधनों पर लगातार जारी कब्ज़ों को तत्काल रोकना होगा और किसी भी कीमत पर मुनाफे के पूंजीवादी अंकगणित से बाहर निकलना होगा. छवि सुधारने की इतनी ही चिंता हो रही है तो यह याद कीजिए कि लोगों ने आपका नमक नहीं खाया है, आपने लोगों के पैसे से नमक, दाल, धंधा, बंगला, रुतबा, शोहरत, इज़्ज़त, लागत… सब हासिल किए हैं.
दरअसल, आपका मर्ज़ निहायत कमसिन, नाज़ुक, आरामतलब, आलसी और लुंद-पुंद बेग़मों के कलेजे के दर्द की तरह है जिसका निवारण किसी भी दवा से नहीं हो पाता. वैद्य तय नहीं कर पाता कि मर्ज़ है क्या और जाएगा कैसे. कितने ही तावीज़ बांध लो, मन्नते कर लो, चूरन खिलाओ, दवाएं करा लो, नजरौटा उतार लो, मर्ज़ जाता ही नहीं. बेशर्म दर्द, लाइलाज मर्ज़.
देश पे रोना बंद कीजिए रतन बाबू. इत्मिनान से बैठकर अपने कृत्यों पर नज़र डालिए और ज़रा ग़ौर कीजिए कि आपकी दुकान ने कितनों को दर्द बांटा है. बंद कीजिए यह बताना कि आपसे कब कब किसने रिश्वत मांगी. याद कीजिए कि किस किस चैनल, अखबार और पत्रिका को आपने कब कब खरीदा. किस-किस नेता और सचिव को कब-कब सेवा दी, कब-कब और किस-किस पार्टी को चुनाव लड़वाया, कहां-कहां संसाधनों की नीलामी अपने पक्ष में कराने के लिए हरसंभव दांव खेले. इन सबको याद करेंगे तो दर्द कम हो जाएगा. सच मानिए. आज़मा कर तो देखिए.
टाटा.