अल्लाह अल्लाह, मैं हुई जवान… कट-कट, सेंसर इट

मेरा एक गाना दिल खोल कर गाने का मन कर रहा है. अल्लाह, अल्लाह, मैं हुई जवान. अल्लाह अल्लाह, तू है कहां. याद आया आप लोगों को ये गाना. अमां हमारे लौंडपने का बड़ा गर्माहट भरा गाना था. उन दिनों सलमान का चेहरा टिटहरी की माफ़िक होता था. सैफ़ को देखकर समझ नहीं आता था कि लड़की है या लड़का. अजय देवगन कब्जियत का पुराना मरीज़ मालूम देता था. बॉबी देओल का बाल के अलावा सब कुछ बेकार था. सुनील शेट्टी किसी मोटर मकैनिक की औलाद और अक्षय कुमार रशियन सर्कस में मौत का कुंआ वाला खेल दिखाने वाला कलंदर. पर मियां पैंट की अपनी क्रीज़ भी इनसे कम नहीं होती थी. इनके जैसे बाल तो कभी अम्मी ने रखने न दिए पर हम चश्मे ज़रूर खरीद लेते थे. लखनऊ में अमीनाबाद में बॉबी देओल चश्मा कुल 12-18 रूपए में मिल जाता था. आंखों पे चश्मा और बस, दुनिया नीली और नीयत गीली हो जाती थी. ख़ैर, गाने पर आइए. अल्लाह अल्लाह, मैं हुई जवान. अल्लाह अल्लाह, तू है कहां.

 

अब आप ये सवाल नुमाया करेंगे कि मियां ऐसे तमाम गाने जो अब यतीमखानों में भी गुसल की नालियों से अरसे पहले फ़ारिग होकर न जाने किस दरिया की किस मछली के गलफड़ों और फिर लोगों की आंतों से होते हुए गंदगी की खुड्डियों तक और आगे फिर वापस मिट्टी में दफ़्न हो चुके हैं, आप उनको क्यों गाना चाहते हैं. अव्वल तो ऐसे गानों को याद करना ही जाहिलियत की निशानी है पर ख़ैर,जैसा कि द़िमागी तौर पर ऐसी बीमारियां बाज़ लोगों में होती हैं, अगर आपको याद आ भी गया तो उसे दर्ज़-ए-इज़हार बक्शने का क्या मतलब था. याने गूसलखाने में नहाते हुए गा लेते. रात की रोटी सालन से फारिग होते हुए गुनगुना लेते. हमें सुनाने का क्या मतलब था.

 

अब मतलब की क्या कहें. देश में इस वक्त दो किस्म के कुंभ चल रहे हैं. जिसको देखो, डुबकी लगाकर खुद को तारने में लगा हुआ है. मैं कहता हूं कि दाग अच्छे हैं, ये कहते हैं आप अभी बच्चे हैं. मैं घबरा गया. दोनों कुंभों की ओर देखा. सोचा, कम से कम एक से तो दामन सींच लूं वरना पुरखों का पाप और अपने समय की खाप मुझे छोड़ेंगे नहीं. मैंने नज़र दौड़ाई. एक ओर चिर-चालू किंतु अल्पावधि कुंभ चल रहा था. यह कुछ शीघ्रपतन जैसा है. कुछ एक दो मास के लिए लगता है लोग आते हैं. घुटनों तक पानी में नहाते हैं. पानी नालों से गंदा होता है पर कहते हैं कि जीवन भर की गंदगी धो देता है. इसमें भी बेस्ट है शाही स्नान- लाइक शाही पनीर, शाही कोरमा, शाही शौक, शाही नज़ाकत. मुझे दोनों शाही कैटेगरी म्यूज़ियम लायक लगती हैं, चाहे वो शाही स्नान हो या शाही नवाबी.

 

स्नान करके आदमी खाता है और फिर खाए हुए को पचाता है. पचने के बाद फिर से कहीं जाता है. क्या आपको समझ आता है. सोचिए ज़रा, 50-60 दिन का एक मेला, जिसमें औसत एक करोड़ लोग रोज़ हों, वहाँ नहाने का पुण्य पाने वाले हगने कहाँ जाते हैं. ज़ाहिर है शहर से बाहर या 52 बीघा पार करके नहीं, उसी कुंभ क्षेत्र की रेत और पानी की धाराओं के इर्द-गिर्द. कुल मिलाकर आकड़ा 100 करोड़ संडास पार कर जाता है. यानी गंगा की रेत में बारूदी सुरंगें हर क़दम पर बिछी हैं. निपटने-धोने के लिए वही मोक्षदायी पानी. सोचकर उल्टी आने को होती है. पर लोग हैं और नहा रहे हैं. घर में बाप को गाली दो, बेटी को पीटो, पत्नी कौ रौंदो, हर किस्म का फरेब करो और चलो मन गंगा जी के तीर… पाप ढूंढ़ते रह जाओगे. मैं ऐसे कुंभ के आयोजनों से रूबरू रहा हूं इसलिए सोचा कि इस बार बच निकलना ही बेहतर. सो, आइडिया चेंज. लेट्स डू समथिंग डिफरेंट. फॉर अ चेंज एट लीस्ट. वैरी अन-हाइजेनिक इट इज़.

 

दूसरे किस्म का कुंभ ज़रा हटकर है. नवयौवना के चिरयौवन सा सधा और व्रत से निवृत्त लंगोटियों से बाहर झांकता. कौतुहलवश उस ओर देखा. पाया कि लोग दैव-दैव, त्राहि-त्राहि पुकार रहे हैं. ये दूसरे कुंभ की परंपरा का शाही पक्ष है. ख़तरा, संकट, ठेस जैसे शब्द यहां बेसिक इलेजिबिलिटी क्राइटेरिया जैसे हैं. हर ओर हाहाकार मचा है. अखाड़े हैं. नागा हैं. कोट पैंट पहने हैं. नेहरू जैकेट और फेब इंडिया में लिपटे हैं. बगल में आई-पैड है. हाथ में ब्लैकबेरी है. या तो टाई के पीछे छिपा जनेऊ है या फिर हिना में रंगी दाढ़ी है. कपड़े झकाझक चमक रहे हैं. हाथों में त्रिशूल है, तलवार है, बैनर हैं, तख्तियां हैं. एक ने कहा, दलित साले चोर हैं. दूसरा बोला, इस फिल्म से अल्लाह की वाट लग जाएगी. तीसरा बोला, रेप भारत में नहीं इंडिया में होता है. चौथा बोला, कम्युनिस्ट माने चूतिया. पांचवां बोला, मोडी इज़ ऑन्ली ऑप्शन, छठा बोला, मैं आम आदमी हूं. सातवें को बेहद सुकून मालूम देता है क्योंकि आठवें ने फलां को फांसी पर लटका दिया है. नौंवां पोप के इस्तीफे का इंतज़ार कर रहा है और दसवां पोप बनने की दावेदारी. इस दौरान ग्यारहवें ने रूश्दी की किताब पढ़े बिना विवेचना कर दी है. वो उसका सिर चाहते हैं या फिर उसका वीज़ा. बाहरवें को लगता है कि हिंदुस्तान में भी गुड और बैड तालेबान पैदा हो गए हैं. तेरहवें ने कहा कि धर्म और धार्मिक भावना संसार की सबसे कमज़ोर, कमसिन चीज़ें हैं. चौदहवां चौहद्दी पर खड़ा हो गया और चिल्लाने लगा कि राम मंदिर बनेगा तो भूख और गरीबी मिटेगी. पंद्रहवें ने कहा, बुल्लेशाह को गाने का हक़ केवल उन्हें है जिनके खिलाफ़ बुल्लेशाह लिखते-गाते रहे. सोलहवें ने कहा कि दुनिया की उम्र अब फिसलने की हो गई है. सत्रहवें ने नाबालिग होने का उठाया फायदा और अठाहरवां बोला, मैं राहुल के साथ हूं क्योंकि मैं युवा हूं.

 

माफ़ कीजिए, इसके आगे देखने से पहले एक चिलम दिख गई. लगा कि निर्वाण और निर्मोह की गंगोत्री यही है. अगर तियों के तियापे से बचना है तो दम लगाओ, ग़म भुलाओ. दम मारा तो सामने सरस्वती ब्रह्मा से अपने कपड़े वापस मांग रही थीं. लक्ष्मी विष्णु के पैर दबाते थक चुकी थीं इसलिए बनिए के साथ भाग गई थीं. राम को धोबिन से प्यार हो गया था और वो ऑनर किलिंग से बचने के लिए मॉरिशस चले गए थे. पैगंबर के पैरों को किसी ने बेड़ियों से जकड़ दिया था. पता चला, वो उनकी औलादें थीं और कुरआन में अफ़ग़ानी किशोरों की तस्वीरें छिपाकर मजे ले रही थीं. ईसा मसीह थाने के सामने अपनी टोकरी चोरी होने की रपट लिखाने के लिए गिड़गिड़ा रहे थे. उनकी भेड़ों को अमरीकी सैनिक भूनकर खा गए थे. नानक के नामधारी शराब माफिया को मारने में दोषी पाए गए थे.

 

क्या अद्भुत कोलाज था इस कुंभ का. सबकुछ खतरे में और खतरे में मज़ा. मैंने एक से पूछा, कॉमरेड, ये सबकुछ जो धार्मिक है, जातिगत है, संप्रदाय आधारित है, ये खतरे में क्यों है. उन्होंने कहा, अबे चूतिए, ये डर है और डर के आगे जीत है. मैंने देखा कि बुद्ध सुअर भूनकर खा रहे हैं और दारू के कुल्हड़ों को देखकर मुस्कुरा रहे हैं. मैं उनसे मुखातिब हुआ तो बोले, बाकी सब तो ठीक है पर हू इज़ डिस नंदी, बातें करता है गंदी. मैं क्या कहता… पलटकर चल दिया. सामने पलायन करते गिद्ध मिले. पूछा कहां जा रहे हो तो बोले- जहन्नम में, चलोगे क्या. पर क्यों… जवाब मिला. अब पारसी भी पारसी न रहे, रतन टाटा हो गए हैं. उन्होंने इतनों को खाया है कि अब हमसे खाए नहीं जाते.

 

ये कैसी अजीब विडंबना है कि आप हर ओर आदमी के अलावा, प्रकृति के अलावा, नैतिकता के अलावा, संसाधनों के अलावा हर चीज़ को ख़तरे में पाएं. खतरा धर्म पर है. खतरे में भगवान, अल्लाह, गॉड हैं. खतरा पहचान पर है, खतरा सीमा पर है, खतरा परंपरा पर है, खतरा संस्कृति पर है, खतरा जाति पर है. सब खतरे में. अगर कोई बचा है तो साला ये आम आदमी. हरामखोर, बस यही नहीं मरता. बाकी सब मरने की कगार पर हैं. ऐसे खतरे के आडंबरों में घिरा राष्ट्रवाद, धर्म, बुद्धिजीवी, सांप्रदायिक खत्म क्यों नहीं हो जाते. अगर आस्था और ईश्वर इतने कच्चे हैं तो चलिए पहले इनकी चिता जलाएं. कम से कम कुछ उजाला तो होगा. हम एक ऐसे समय में जी रहे हैं जहाँ बौद्धिक नपुंसकता अपने चरम पर है. कुछ कबीले पैदा हो गए हैं. उनके पास सरदारों के नाम पर कुछ सियार हैं और वे रह-रहकर हुआं-हुआं कर रहे हैं. मुट्ठी भर सियारों का रोना पूरे देश के लिए, मीडिया के लिए, बहसतलब मौकों के लिए चिंता का विषय बनाया जा रहा है. इंसान मर रहा है, सियारों का पेट भर रहा है. धंधा चालू है. अफीम, गांजा, चरम, स्मैक से भी तेज़ है इनका कारोबार.

 

अपनी भूख और सोच के खगोल को खरोचते हुए मुझे ऐसा महसूस हुआ कि जैसे मैं अल्बर्ट कामू के आउटसाइडर जैसा हूं. यह बहुत देर तक अच्छा नहीं था. सो, मैं नागा बन गया. सोचा, लेट्स ट्राई. इट हर्ट्स बट देअर इज़ प्लेज़र इन पेन. येन केन प्रकारेण. कंधी निकाली, बाल संवारे और सफेद बूट पहनकर मैं भी मैदान में… अल्लाह अल्लाह, मैं हुई जवान, अल्लाह अल्लाह तू है कहां. अगर किसी को बुरा लगा तो आई एम सॉरी अल्लाह.

From a slum based tabloid to BBC world service, over the last 12 years, Panini Anand has worked as a journalist for many media organizations. He has closely observed many mass movements and campaigns in last two decades including right to information, right to food, right to work etc. For a man who keeps a humble personality, Panini is an active theatre person who loves to write and sing as well.

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