चंद रोज पहले टीवी के एक हिन्दी चैनल में नीचे की पट्टी पर हिन्दी के कुछ लेखकों को मिले पुरस्कारों की सूचना देख रहा था । फ़ेसबुक पर तो हर रोज़ कोई न कोई लेखक अपने पुरस्कृत होने का जश्न मनाता हुआ दिखाई देता हैं । अगर हिसाब लगाया जाए तो अभी देश के गाँव, प्रखंड, जिलों, क़स्बों, महानगरों में हिन्दी के लेखकों को मिलने वाले पुरस्कारों की संख्या हज़ारों में होगी । ‘वागर्थ’ जैसी पत्रिकाओं में छपने वाले अधिकांश लेखकों को हम दो-चार पुरस्कारों से कम की कलंगियां लगाये नहीं देखते हैं ।
इतने सारे पुरस्कार लेकिन किताबों की बिक्री ! हिन्दी में साहित्यिक पुस्तकों की बिक्री आज नहीं के बराबर है । 99 प्रतिशत किताबें 500 से कम छापी जाती हैं । इनमें भी अधिकांश किसी इतर उद्देश्य की पूर्ति के लिये, सिर्फ़ 100-200 छापी जाती हैं । प्रकाशक पाठकों के लिये नहीं, सरकारी खरीदों के लिये किताबें छापते हैं और जितनी किताबों की ख़रीद का आदेश जुगाड़ करते हैं, उससे बमुश्किल दस किताबें ही अतिरिक्त छापने का जोखिम उठाते हैं । हिन्दी में आम पाठकों के लिये कम लिखा जाता है । ख़ास के लिये होता है । प्रकाशक भी पाठक के लिये नहीं छापता । उसका मामला भी ख़ास होता है ।
दरअसल, लेखन का अपना एक गुणधर्म होता है, प्रकाशन का अपना और पुरस्कारों का अपना। इन सबकों मिला कर बनने वाले लेखन-प्रकाशन-पुरस्कार के समग्र गोरखधंधे का अपना अलग ही गुणधर्म होता है। इन सबका आपस में एक संबंध हैं, फिर भी इस समग्र गोरखधंधे के गुणधर्म से यदि हम लेखन के, प्रकाशन के और पुरस्कारों के अलग-अलग गुणधर्मों को निकालने की कोशिश करने लगेंगे तो वह गलत होगा। ठीक इसीप्रकार, इन सबके अलग-अलग गुणधर्मों से इस पूरे गोरखधंधे के गुणधर्म को निकालना भी गलत है।
हिन्दी का साहित्य समाज में जितना अधिक अप्रासंगिक होता जा रहा है, उसी अनुपात में हिन्दी साहित्य पर पुरस्कारों की संख्या बढ़ती जा रही है । इसे उलट कर इस प्रकार भी कहा जा सकता है कि हिन्दी में पुरस्कारों की संख्या जितनी बढ़ती जा रही है, समाज में साहित्य की प्रासंगिकता उतनी ही घटती जा रही है ।
सच यह है कि लेखकों ने आम लोगों और उनके जीवन के संघर्षों से अपना नाता तोड़ लिया हैं, तो आम लोगों ने भी लेखकों से अपना संबंध तोड़ लिया है । अभी के तमाम लेखक किसी न किसी प्रकार से सरकारी तंत्र के अंग हैं । वे इस तंत्र के सेवक हैं । जनता के सेवक होना तो दूर की बात, वे व्यापक जन-समाज के हिस्से भी नहीं हैं । सरकारी तंत्र में रहते हुए परस्पर एक-दूसरे को उपकृत करना, पुरस्कार लेने और देने की जोड़-तोड़ में ही इनकी ज़िंदगियाँ बीत रही हैं ।
तंत्र और जनता दो विपरीत ध्रुव हैं । तंत्र का अंग बन कर जनता का लेखक नहीं बना जा सकता । जीवन के संघर्षों में निहित रचनाशीलता के मूल स्रोत से कट जाने के कारण यह लेखक थोथा आलंकारिक लेखन करने के लिये अभिशप्त होता है ।
ऐसी स्थिति में आज पुरस्कार किसी की श्रेष्ठता के नहीं, लेन-देन के इस पूरे व्यापार में उसके लंबे हाथों और उसकी पहुँच का प्रमाण-पत्र बन कर रह गये हैं । यह मामला अब प्रोत्साहन का नहीं, प्रलोभन का हो गया दिखाई देता है । यह कुछ लोगों द्वारा नौजवान लेखकों को अपना अनुचर बनाने का साधन भी बन गया है । किसी समय लेखन पर विचारधारात्मक दबाव होते थे और लेखकों की पीढ़ियाँ अपने को विचारधारात्मक संघर्षों की रगड़ से तैयार किया करती थी । अधिक से अधिक पढ़ने और अपनी जानकारियों को अद्यतन रखने का दबाव तब हर नये-पुराने लेखक पर होता था । उसके स्थान पर पुरस्कारों के प्रलोभन नये लेखकों को तिकड़मबाजी और कोरी चापलूसी की शिक्षा देते हैं । आज अगर क़ायदे से खोज की जाए तो पता चलेगा कि लेखक संगठनों की गिरती हुई साख के पीछे भी इस पुरस्कार-राजनीति का काफी बड़ा हाथ है । लेखक संगठनों के नेतृत्व के लोगों को भी पुरस्कारों के आदान-प्रदान के इस गोरख-धंधे में पूरी तरह लिप्त पाया जा सकता हैं । इसीलिये ये दो-पाँच-दस हज़ार रुपये के पुरस्कार प्रोत्साहन नहीं, बीमारियों का बँटवारा है । श्रेष्ठता की मिथ्या चेतना किसी बीमारी से कम नहीं है ।
सवाल सिर्फ़ बिकने का ही नहीं है, एक लेखक के नाते जनता के दिलों में अपना स्थान बनाने, सामाजिक प्रतिष्ठा अर्जित करने का है । उस ज्ञानपीठ पुरस्कार-प्राप्त लेखक का कोई क्या करें जिसके साहित्य को न कोई जानता हो, जिसके प्रति लोगों की कोई भावना न हो और जिसके विचारों का कोई रत्ती भर मूल्य न लगाता हो । आज हिन्दी का बड़े से बड़ा लेखक भी यह दावा नहीं कर सकता है कि हिन्दी भाषी समाज में उसकी कोई पूछ है, लोग उसे पहचानते हैं और किसी भी विषय पर उसकी राय का कोई महत्व है । किसी भी सामाजिक-राजनीतिक विषय पर आज हिन्दी के लेखकों से शायद ही कोई राय माँगता है । यह विचार का एक गंभीर विषय है । लेखकों-बुद्धिजीवियों की लगभग ख़त्म हो रही सामाजिक साख में पुरस्कारों के इस गोरख-धंधे की भूमिका पर भी विचार की ज़रूरत है ।